कितने बच्चे पैदा हों ये कौन तय करे, सरकार या औरत?
उत्तर प्रदेश सरकार नौकरियों और सरकारी योजनाओं के प्रलोभन और दंड की प्रस्तावित नीति के ज़रिए जनसंख्या नियंत्रण करना चाहती है. स्वतंत्र भारत में बार-बार लाई ऐसे नीतियों ने औरतों की ज़िंदगी पर व्यापक असर डाला है.
कम बच्चों के नियम का औरतों पर असरइसका असर मर्द और औरतों दोनों पर होना चाहिए था पर औरतों पर कहीं ज़्यादा पड़ा – जैसा सरकारी अफसर निर्मल बाख ने पांच राज्यों के अध्ययन में पाया.उन्हें कई ऐसे उदाहरण मिले जहां किसी मर्द ने पंचायत चुनाव जीतने के बाद तीसरा बच्चा होने पर अपनी पत्नी को तलाक दे दिया, नाजायज़ औलाद से गर्भवती होने का झूठा इल्ज़ाम लगाकर घर से निकाल दिया या पहली पत्नी को छोड़कर दूसरी शादी कर ली.
उन्होंने ऐसी औरतों का भी ज़िक्र किया है जो चुनाव जीतने के बाद अगर तीसरी बार गर्भवती हुईं तो दूसरे गांव या राज्य में जा कर बच्चे को चोरी छिपे जन्म दिया. अगर लड़का हुआ तो राजनीतिक पद छोड़ दिया और लड़की हुई तो उसे ही छोड़ दिया.कई जगह महिलाओं का असुरक्षित गर्भपात करवाया गया और कहीं भ्रूण की लिंग जांच कर ग़ैरकानूनी भ्रूण हत्या की गई.
निर्मल बाख के मुताबिक़, “इस नीति का औरतों के स्टेटस पर बहुत बुरा असर पड़ा लेकिन आम धारणा यही बनी रही कि जनसंख्या नियंत्रण के लिए ये ज़रूरी है.”ग्रामीण परिवेश में बेटे की चाह और पंचायत में प्रतिनिधित्व के बीच चुनाव करने में औरत की अपनी चाह मारी जाती रही. लेकिन ये जानने की कोशिश कम ही हुई कि वो क्या चाहती है?
इमेज स्रोत,GOH CHAI HINइमेज कैप्शन,चीन की राजधानी बीजिंग में ‘वन चाइल्ड पॉलिसी’ की जानकारी देता बिलबोर्डचीन की जनसंख्या नीति और बेटे की चाहजनसंख्या नियंत्रण में सरकार के दखल का सबसे बड़ा उदाहरण पड़ोसी देश चीन में मिलता है. भारत से ज़्यादा आबादी वाले चीन ने उसे कम करने के लिए साल 1980 में ‘वन-चाइल्ड’ पॉलिसी अपनाई.
बेटे की चाह चीन में भी कितनी प्रबल है इसका अंदाज़ा इस बात से मिलता है कि ‘वन-चाइल्ड’ पॉलिसी में ग्रामीण इलाकों में रहने वाले दम्पति को दो बच्चे पैदा करने की इजाज़त दी गई बशर्ते उनका पहला बच्चा लड़की हो.इसका मकसद था कि ‘वन-चाइल्ड’ पॉलिसी को निभाने और बेटे की चाह पूरी करने के लिए ग्रामीण और कम शिक्षित इलाकों में लिंगानुपात ना बिगड़ जाए.
इसके बावजूद ‘वन-चाइल्ड’ पॉलिसी लाने के दो दशक बाद चीन में बच्चों का लिंगानुपात बहुत बिगड़ गया था. यानी यहां भी गर्भपात और भ्रूण हत्या जैसे तरीकों का इस्तेमाल कर सरकारी नीति से बचकर बेटे की ख्वाहिश पूरी करने की कोशिशें की गई.युनिसेफ़ के मुताबिक़ 1982 में 100 लड़कियों के मुक़ाबले 108.5 लड़कों से बढ़कर ये 2005 में 118.6 लड़कों की औसत दर तक पहुंच गया. 2017 में 100 लड़कियों के मुक़ाबले 111.9 लड़कों पर आ गया है. पर ये अब भी दुनिया के सबसे बुरे लिंगानुपात में से है.
चीन में अब जनसंख्या नीति में ढील दी है.इमेज स्रोत,FREDERIC J. BROWNइमेज कैप्शन,शहरी इलाकों में औरतों को शिक्षा और रोज़गार के ज़्यादा अवसर मिले हैंजनसंख्या में कटौती और लिंगानुपात में बढ़ोत्तरीचीन में बच्चों के लिंगानुपात में जो बेहतरी आई है वो ज़्यादातर शहरी इलाकों में देखी गई. जहां औरतों की शिक्षा का स्तर बेहतर है, वो बुज़ुर्ग मां-बाप का ख़याल रखने के लिए आर्थिक तौर पर सक्षम हैं, उन्हें जायदाद में हिस्सा मिलता है और परिवार भी रूढ़ीवादी परंपराओं में कम यकीन रखते हैं.
अमरीका की टफ्ट्स युनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस की प्रोफ़ेसर एलिज़बेथ रेमिक चीन के साथ जापान और दक्षिण कोरिया में बच्चों के अच्छे लिंगानुपात का उदाहरण देते हुए बताती हैं कि इसके पीछे सरकारी नीतियों का अहम योगदान है.उनके मुताबिक़, “जापान में औरतें प्रॉपर्टी में हकदार होती हैं, आर्थिक रूप से सशक्त हैं और वहां ओल्ड-एज पेंशन की बहुत अच्छी व्यवस्था है. दक्षिण कोरिया में भी 1995 के बाद बच्चों का लिंगानुपात ठीक होना शुरू हुआ जब सरकार ने औरतों और मर्दों को प्रॉपर्टी में बराबर का हिस्सा दिया, परंपराओं में बराबरी की जगह दी और शादी के बाद पत्नी का पति के घर में उसके परिवार के साथ रहने के चलन को खत्म किया.”
यानी जनसंख्या नियंत्रण की किसी भी तरह की नीति लाने के बुरे परिणाम भी हो सकते हैं और ये ज़रूरी नहीं को लोग उसका स्वेच्छा से पालन करें.इमेज स्रोत,Pacific Pressपिछले अनुभव ये बताते हैं कि बिना प्रलोभन या दंड की नीति अपनाए, औरतों को सक्षम बनाने से अच्छे नतीजों तक पहुंचा जा सकता है.
अंतरराष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका लैन्सेट में साल 2020 में छपे एक शोध में भी पाया गया कि, “गर्भ-निरोध के आधुनिक तरीकों तक पहुंच और लड़कियों की शिक्षा के बल पर ही दुनिया-भर में फर्टिलिटी की दर और जनसंख्या गिर रही है.”एनएफ़एचएस 2015-16 के मुताबिक़ भारत में भी बारहवीं तक पढ़ाई कर चुकीं, आर्थिक रूप से सशक्त औरतें कम बच्चे पैदा कर रही हैं. अनपढ़ लड़कियों के मुक़ाबले पढ़ी-लिखी लड़कियां 15 से 18 साल की नाबालिग उम्र में मां कम बन रही हैं.
वहीं कम पढ़ी-लिखी, गरीब, ग्रामीण और अल्पसंख्यक समुदायों की औरतों को गर्भ-निरोध अभियानों की जानकारी कम है.इमेज स्रोत,मर्द क्या सोचते हैं?अब इसके साथ सामाजिक सोच से जुड़े निष्कर्ष देखें तो एनएफ़एचएस 2015-16 के मुताबिक़ क़रीब 40 प्रतिशत मर्द मानते हैं कि गर्भ-निरोध सिर्फ औरतों की ज़िम्मेदारी है, पर 20 प्रतिशत ये भी मानते हैं कि गर्भ-निरोध के तरीकों का इस्तेमाल करनेवाली औरत एक से ज़्यादा मर्द से यौन संबंध बनानेवाली होती है.
यानी औरतों पर गर्भ-निरोध की ज़िम्मेदारी भी है और उनके चरित्र पर सवाल भी. इसके अलावा उस पर बेटे की चाह का सामाजिक दबाव भी.साल 2000 में भारत में अपनाई गई दूसरी राष्ट्रीय जनसंख्या नीति में प्रलोभन और दंड की जगह बच्चों और मां की सेहत, औरतों के सशक्तिकरण और गर्भ-निरोध पर ध्यान केंद्रित किया गया.
अब केंद्र सरकार ने गर्भ-निरोध में मर्दों की हिस्सेदारी बढ़ाने की बात शुरू की है. भारत का टीएफ़आर 1950 में छह था से गिरकर 2015-16 में 2.2 तक आ गया है.गर्भ-निरोध के लिए औरतों की ज़िम्मेदारी बांटने और उन्हें उनके हक देनेवाले कदम सही लिंगानुपात के साथ जनसंख्या नियंत्रण के कहीं बेहतर नतीजे दे सकते हैं. यही बात उत्तरप्रदेश और असम जैसे राज्यों पर लागू होती है जो लगता है इतिहास के पन्नों से सबक नहीं ले रहे हैं.