कद्दू लौकी परवल कुंदरू तोरई नेनुआ सेम इत्यादि जैसी सब्जियां जिन्हें शहरों में तो नहीं कह सकता, लेकिन गांवों में प्रत्येक परिवार थोड़ी सी कोशिश करे तो उसे घर के आगे या पीछे खाली पड़ी जगह में उगाकर अपने परिवार व पड़ोसियों के लिए भी सब्जी की व्यवस्था कर सकता है। ऐसी सब्जियों के लिए ज्यादा जगह व ज्यादा मेहनत भी नहीं लगती।कद्दू लौकी परवल कुंदरू तोरई नेनुआ सेम इत्यादि जैसी सब्जियां जिन्हें शहरों में तो नहीं कह सकता, लेकिन गांवों में प्रत्येक परिवार थोड़ी सी कोशिश करे तो उसे घर के आगे या पीछे खाली पड़ी जगह में उगाकर अपने परिवार व पड़ोसियों के लिए भी सब्जी की व्यवस्था कर सकता है। ऐसी सब्जियों के लिए ज्यादा जगह व ज्यादा मेहनत भी नहीं लगती।
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लेखक: अरविंद विश्वकर्मा

आज जब पूरा देश आत्मनिर्भर भारत की बात कर रहा है, तब यह समझना जरूरी है कि आत्मनिर्भरता का रास्ता सिर्फ बड़ी नीतियों से नहीं, बल्कि हर परिवार की छोटी-छोटी जिम्मेदारियों से होकर गुजरता है। गांवों में रहने वाले लोगों के पास एक ऐसी पूंजी है जो शहरों में दुर्लभ होती जा रही है—खुली ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों का सहज संपर्क।

यदि हर ग्रामीण परिवार यह ठान ले कि वह अपनी रसोई की कम से कम कुछ सब्जियों की पूर्ति खुद करेगा, तो वह न केवल खुद को, बल्कि अपने गांव को भी आत्मनिर्भर बना सकता है।

खाली जगह, बड़ी संभावना

गांवों में अधिकांश घरों के आगे या पीछे कुछ ज़मीन खाली होती है। यह ज़मीन अक्सर यूँ ही बेकार पड़ी रहती है। यदि इस जमीन का इस्तेमाल लौकी, कद्दू, तोरई, परवल, कुंदरू, नेनुआ, सेम जैसी बेलवाली सब्जियां उगाने में किया जाए, तो:

  • परिवार को ताज़ा और स्वास्थ्यवर्धक सब्जी मिलेगी,
  • पड़ोसियों को भी आवश्यकता पड़ने पर सहयोग किया जा सकेगा,
  • और साल के कम से कम 40 दिन, घर की सब्जी की ज़रूरत बिना बाज़ार गए पूरी की जा सकेगी।

कम लागत, अधिक लाभ

इन सब्जियों की खास बात यह है कि:

  • इन्हें उगाने के लिए अधिक जमीन, पानी या मेहनत की ज़रूरत नहीं होती,
  • यह जल्दी तैयार हो जाती हैं,
  • और यदि जैविक खाद (गोबर, पत्तियां, राख आदि) का उपयोग करें, तो खर्च लगभग शून्य हो जाता है।

इस प्रकार, यह एक ऐसी प्रणाली बन सकती है जो स्वस्थ जीवन, पर्यावरणीय संतुलन और आर्थिक बचत तीनों में सहायक हो।

किचन गार्डन से आत्मनिर्भरता तक

आप सोचिए – यदि एक गांव के 100 में से 50 परिवार इस तरह अपनी रसोई की सब्जी खुद उगाएं तो:

  • गांव में हरी सब्जियों की कमी नहीं होगी,
  • बाजार पर निर्भरता घटेगी,
  • और सबसे महत्वपूर्ण बात – हर परिवार को ताज़ा, रसायन-मुक्त भोजन मिलेगा।

यह छोटी शुरुआत बड़ी क्रांति बन सकती है।

सरकार और पंचायतों की भूमिका

यदि स्थानीय प्रशासन, पंचायत या सरकार ऐसे प्रयासों को बढ़ावा दे तो यह और भी प्रभावी हो सकता है। जैसे:

  • बीजों का मुफ्त वितरण,
  • जैविक खाद बनाने की ट्रेनिंग,
  • महिलाओं को समूह में जोड़कर सामूहिक बागवानी योजनाएं शुरू करना,
  • स्कूलों में बच्चों को “किचन गार्डन” का पाठ पढ़ाना।

यह न केवल कृषि कौशल को बढ़ावा देगा, बल्कि ग्राम अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करेगा।

खुद की थाली में उगाई गई सब्जी का स्वाद ही कुछ और होता है

एक बार जब आप अपनी मेहनत से उगाई गई सब्जी से बना खाना खाते हैं, तो उसका स्वाद, उसकी ऊर्जा और संतुष्टि का स्तर अलग ही होता है। यह सिर्फ भोजन नहीं, सकारात्मक जीवन का एहसास बन जाता है।

निष्कर्ष: गांव की समृद्धि घर के आंगन से शुरू होती है

आत्मनिर्भरता कोई दूर की बात नहीं है। यह तब शुरू होती है जब हम अपनी छोटी-छोटी जरूरतों को खुद पूरा करने की दिशा में कदम बढ़ाते हैं। अपने घर में सब्जी उगाना एक ऐसी ही पहल है—जो परिवार को स्वस्थ, गांव को मजबूत और देश को आत्मनिर्भर बना सकती है।

लेखक परिचय:
अरविंद विश्वकर्मा — ग्रामीण विकास और आत्मनिर्भर भारत के प्रबल समर्थक। समाज को जमीनी स्तर पर बदलने के लिए सतत प्रयासरत

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