साल 1893 का वाकया है। अमेरिका में 271 बीमार औरतों पर एक स्टडी हुई। इन औरतों में मानसिक समस्या के अलावा एक और बात समान थी। सबके चेहरे और देह पर काफी बाल थे। ये बाल महीन और हल्के नहीं थे कि जिस्म में घुल-मिल जाएं, बल्कि सख्त और गहरे रंग के थे। वैज्ञानिकों ने माना कि बालदार शरीर वाली औरतें पागल होती हैं, वे मौका पाते ही जुर्म करती हैं और सेक्स की इच्छा भी उनमें दूसरी औरतों से कहीं ज्यादा होती है। कुल मिलाकर ये औरतें खतरनाक हैं, जो बेड़ियों में ही रखी जानी चाहिए।
इसके बाद से महिलाओं पर बेबाल होने का दबाव बढ़ता गया। कोई औरत खुद को पागल नहीं कहलाना चाहती थी। न ही कोई चाहती थी कि उसे पशुओं जैसी इच्छाओं वाला माना जाए। वे आटे की लोई जितनी नर्म और मोम-सी चिकनी होने के जतन करने लगीं। सदियां बीतीं, कोशिश अब भी जारी है।
फंड जमा करने वाले ऑनलाइन प्लेटफॉर्म मिलाप पर ऐसी ही एक कोशिश दिखी। कैंसर-ट्यूमर जैसी जानलेवा बीमारियों से जूझते इन चेहरों को उतारने के लिए मिलाप की वॉल पर अक्सर उदास चेहरे या फिर आंसूभरी आंखें दिखती हैं, लेकिन अब इस वॉल पर 21 साल की एक युवती छाई है। प्रकृति नाम की इस युवती के चेहरे पर हल्की खिलंदड़ी मुस्कान है। चिबुक ऊपर की ओर उठी हुई, मानो सबको ललकार रही हो। तस्वीर के नीचे लिखा है- हेल्प प्रकृति विद लेजर हेयर ट्रीटमेंट। यानी बालों को लेजर ट्रीटमेंट से हटाने में प्रकृति की मदद करें।
खुद को ट्रांसजेंडर बताती बेंगलुरु की इस युवती के मुताबिक, शरीर पर बाल होने के कारण उन्हें काफी ताने झेलने पड़े। यहां तक कि वे डिप्रेशन में चली गईं। बालों को हमेशा के लिए हटाने के लिए 80 हजार रुपए की जरूरत थी। आन की आन दानवीरों का कुनबा जमा हो गया और अब उनके पास लेजर हेयर रिमूवल के लिए काफी रकम आ चुकी है।

अब प्रकृति शायद डिप्रेशन से उबर सकें। उन पर ताने कसने वाले मुंह भी शायद एक सुंदर और कमनीय युवती को देख बंद हो जाए। लेकिन क्या प्रकृति जैसी युवा और तरक्की-पसंद लड़की की इस मांग ने हम औरतों को एक और कदम पीछे नहीं धकेल दिया?
औरतों की त्वचा चिकनी और कसी हुई होनी चाहिए, तभी उनकी मांग है। इसके लिए लड़की के जन्मते ही कवायद शुरू हो जाती है। बेसन, हल्दी, नींबू का उबटन बनाकर उसे रगड़-रगड़कर नहलाया जाता है। इसके दो फायदे हैं- बगैर किसी खर्च, बाल हट जाएंगे और लड़की जरा उज्जर भी हो जाएगी। फिर तेरह-चौदह की होते-होते वे खुद ही पार्लर की ओर मुड़ जाती है। इतनी सी उम्र में लड़की को भले ये न पता हो कि 11वीं में उसे विषय कौन-सा लेना है, लेकिन वह जान चुकी होती है कि हाथ-पैर पर बाल दिखे, तो उसका मजाक बनेगा।
स्त्री पर बे-बाल होने का ये दबाव सदियों पहले शुरू हो चुका था। अंग्रेज वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने इसकी नींव अपनी किताब Descent of Man में रख डाली थी। उन्होंने अलग-अलग वंश और मूल के इंसानों को उनके देह सौष्ठव से जोड़ा। वहीं स्त्रियों के बारे में डार्विन मानते थे कि जिनके शरीर पर बाल होते हैं, वे अविकसित स्त्रियां हैं, जो कभी सभ्य संसार में नहीं आ सकतीं। अंग्रेजी में उन्होंने इसके लिए एक टर्म इस्तेमाल किया- ‘less developed’। यानी जो औरत अपनी देह के प्राकृतिक गठन को माने, वह जंगली है।
डरी हुई औरतें कभी अपना शरीर खुरदुरे पत्थर से रगड़तीं तो कभी दवाएं खातीं। 20वीं सदी में ये डर अपने चरम पर था। तब एक क्रीम आया करती थी, जो खास औरतों की त्वचा से बाल उधेड़ने का काम करती। कोरेमलू (Koremlu) नाम की इस क्रीम के बारे में दावा था कि सालभर तक इस्तेमाल से शरीर के किसी भी हिस्से का बाल हमेशा से लिए गायब हो जाएगा। उस समय 10 डॉलर की इस क्रीम को लाखों औरतों ने खरीदा, लेकिन अस्पताल में धड़ाधड़ एक के बाद मिलते-जुलते मामले आने लगे।
सभी औरतें डिप्रेशन, दिल का दौरा पड़ने या लकवा मारने जैसी मुश्किलों का शिकार हो गईं। हजारों औरतों की जान चली गई। वहीं बहुत सी औरतों ने डिप्रेशन में जाकर खुदकुशी कर ली। बाद में राज खुला कि इस क्रीम में थैलियम नाम का जहर होता था, जो शरीर पर आर्सेनिक से भी भयंकर असर करता था। बाद में इस क्रीम का रंग-रूप बदलकर इसे चूहा-मार दवा बना दिया गया।
चूहामार क्रीम हटी तो उसकी जगह एक्स-रे ने ले ली। एक्स-रे मशीन के आगे औरत को अपनी देह का वह हिस्सा खुला रखना होगा, जिससे उसे शिकायत है। रेडिएशन से बाल जड़ से हटने लगेंगे। करोड़ों औरतों ने एक्स-रे को अपनी देह पर झेला। ये जानते हुए भी कि खतरनाक रेडिएशन से कुछ सालों बाद वे कैंसर या अल्सर का शिकार हो जाएंगी।
औरतों की अपने ही शरीर के साथ ये जंग जारी रही। उन्हें यकीन दिला दिया गया कि वे अपने कुदरती तौर-तरीकों के साथ जंगल से छूटा कोई पशु कहलाएंगी। यहां तक कि आजाद-खयाल औरतें भी वैक्सिंग को हाइजीन का हिस्सा मानने लगीं। कुछेक औरतें बीच-बीच में विरोध का झंडा उठाती भी हैं लेकिन फिर तुरंत ही रोक दी जाती हैं।
मिलाप की वॉल पर प्रकृति को पूरी रकम मिलना भी एक किस्म की रोक ही है। किसी ने उन्हें नहीं बताया कि रोएंदार त्वचा के साथ भी वे उतनी ही आकर्षक लगेंगी। किसी ने नहीं समझाया कि औरत का पूरापन मखमली त्वचा या खांचे में समाते शरीर से नहीं, बल्कि तमाम मानवीय खूबियों-खामियों के साथ है। प्रकृति को रोकने की बजाए उनकी अपील पर दानवीरों की कतार खड़ी हो गई कि जितने चाहो पैसे लो, लेकिन आंखों पर भरम का परदा गिरा रहे। ये तस्वीर कुछ और ही होती, अगर बेखौफ हो खुद को ट्रांसजेंडर बता पाने वाली प्रकृति सौंदर्य को औरत की पहचान से न जोड़ती।