कुछ फिल्मे समाज की सच्चाई को इतनी बेरुखी से आपके सामने रखती है कि आप चाहते है कि आप इस फिल्म को झूठा साबित कर सके, बनावटी बता सके पर जब आप निगाह उठा कर अपने चारो तरफ देखते है तो आपको उस फिल्म के किरदार दिखाई देते है, घटनाएं दिखाई देती है, और आपको अंदाजा लगता है कि ये सब कुछ आपके आस पास ही न जाने कब से होता आ रहा था, बस आपका ध्यान इस तरफ इस फिल्म ने मोड़ा है।
वध फिल्म में संजय मिश्रा और नीना गुप्ता मुख्य किरदार में है। कहानी है एक ऐसे विवाहित जोड़े की जो इस वक्त उम्र की ढलान से धीरे धीरे गिर रहे है, उन दोनो का एक ही बेटा है जिसे उन दोनो ने कुछ साल पहले बैंक से और एक आदमी से ब्याज पर कर्ज लेकर अमेरिका भेजा था,बेटे ने वहा जाकर शादी कर ली है और वो हर महीने अपने बूढ़े मां बाप को पांच हजार रुपए भेजता है। वो बेटा उस 25 लाख के कर्ज को बिलकुल भूल चुका है जो उसके मां बाप ने उसे अमेरिका भेजने के लिए लिया था। अब हाल ये है की बैंक अपने पैसे काट रहा है, और जिससे ब्याज पर पैसे लिए थे, वो आदमी पेशे से टीचर और जाति से ब्राह्मण संजय मिश्रा के घर पर लड़किया शराब और मांस लेकर आता है, और कर्ज न चुकाने की स्थिति में उनका घर कब्जे में लेने वाला है। बेटा अपनी दुनिया में खुश अपने मां बाप को इस दलदल से निकालने की कोई कोशिश नही करता है। फिल्म का ये हिस्सा आपको बागबान की याद दिलाएगा, पर ये बागबान की कॉपी नही है।
कुछ वक्त के बाद हालात ऐसे बन जाते है कि संजय मिश्रा एक दिन कर्ज देने वाले को जान से मार देता है, पत्नी जिसे चूहों को भी मारने से ऐतराज था, इस हत्या के बाद संजय मिश्रा से नाराज रहती है, आखिर में संजय मिश्रा पोलिस स्टेशन जाकर आत्म समर्पण करने की कोशिश करते है, पर पोलिस वाला उनके कन्फेशन को मनोहर कहानियां से कॉपी बोलकर भगा देता है। संजय मिश्रा वापस आते है और पत्नी से ये बात बताते है, पत्नी पति की इस हरकत को सुनकर माफ कर देती है। बाद में संजय मिश्र के सामने दो चुनौतिया होती है, एक अपने घर को बचाना दूसरा हत्या की सजा से खुद को दूर रखना। फिल्म की कहानी के यही दो हिस्से है, ये वाला हिस्सा आपको दृश्यम से मिलता जुलता लगेगा पर ये फिल्म बागबान और दृश्यम की कॉपी नही है, ठीक उसी तरह जिस तरह सीता रामम वीर जारा की कॉपी नही है।
फिल्म अपने दोनो ही मुद्दो को बहुत अच्छे से हैंडल करती है, संजय मिश्रा और नीना गुप्ता बेटे की बेरुखी पर कोई मेलोड्रामा नही करते है, कोई भारी भरकम डायलॉगबाजी नही है, बस भाव है, चेहरे के और आंखो के जो बूढ़े मां बाप का दुख निराशा पछतावा सब बहुत बारीकी से दर्शको के सामने रख देते है।
फिल्म सिनेमा के सबसे बेहतरीन कॉन्सेप्ट पर बनी है, जिसमे कोई कैरेक्टर बुरा या अच्छा नही होता, बस घटनाएं होती है, और उन घटनाओं पर किरदार अपने अपने तरीके से रिएक्ट करते है जिससे दूसरी बड़ी घटनाओं का निर्माण होता है। ये फिल्म संजय मिश्रा और नीना गुप्ता की हैसियत समझाती है दर्शको को कि वो दोनो क्या है इस इंडस्ट्री के लिए, नीना गुप्ता ने फिल्म में एक ऐसी बूढ़ी औरत का रोल किया है जिसके घुटने जवाब दे चुके है, और आप पूरी फिल्म के हर सीन में उठते बैठते चलते वक्त नीना गुप्ता के चेहरे पर दर्द के हल्के एक्सप्रेशन देखेंगे।
संजय मिश्रा ने एक सीधे साधे मास्टर का रोल किया है, जो खुद के साथ गलत होने पर भी कुछ नही बोलता है, उल्टा खामोशी से गलत करने वाले का काम पूरा कर देता है। ये किरदार एक डरा हुआ इंसान है, जो रोते वक्त अचानक से अपने आस पास देखने लगता है कि किसी ने देखा तो नही, इस किरदार को खून करने के बाद हम बदलते देखते है, उसकी बॉडी लैंग्वेज, आवाज, आंखे सब बहुत धीरे धीरे बदलती चली जाती है, ये फिल्म हमे समझाती है कि इंसान कोई भी कितना भी कमजोर हो, अगर उसने अपने जहन में अच्छे बुरे की बंदिश तोड़ दी, तो वो क्या हो सकता है, ये वो खुद नही जानता है।
ये फिल्म पूरी तरह क्राइम थ्रिलर नही है, ये फिल्म समाज की कई घटनाएं को जो अलग अलग जगह, अलग अलग व्यक्तियो के साथ होती है, उसे एक किरदार के साथ जोड़कर दिखाती है कि एक इंसान के तौर पर हमारी हदे कहा तक है, हम सच में उतना कमजोर है जितना हमने खुद को यकीन दिला रखा है?
ये फिल्म आपका मनोरंजन नही करती है, दृश्यम की तरह इस फिल्म को देखते हुए रोंगटे खड़े नही होते ना ही हम कोई बहुत बड़ा ट्विस्ट देख पाते है, ये फिल्म बागबान की तरह आपको इमोशनल नही करती है,न ही मां बाप को लेकर आपको किसी तरह का ज्ञान देती है। इसलिए मनोरंजन या ड्रामा की नियत लेकर मत देखिए। अगर आपको अच्छी और बारीक एक्टिंग देखना है, जो लाउड न हो ड्रामेटिक न हो तो ये फिल्म मस्ट वॉच है आपके लिए।
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