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उत्तर प्रदेश के छोटे शहरों में कोरोना से मौत के सरकारी आंकड़े भले ही कम हों, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। गोरखपुर के अधिकतर मोहल्लों में खड़े पीपल के पेड़ इन दिनों घड़ों से लदे हुए हैं। उनमें इतनी जगह नहीं बची है कि और घड़े बांधे जा सकें। यहां मौतों की अलग से गिनने की जरूरत नहीं। ये घड़े इस बात का सबूत हैं कि पीपल के पास रहने वाले कितने लोगों की मौत हुई है।

लोगों का कहना है कि उन्होंने ऐसा इससे पहले कभी नहीं देखा। अधिकतर लोगों की मौत कोरोना से हुई है। हर तीसरे घर में मातम पसरा है। ये घड़े 10 दिन के अंदर हुईं मौतों की गवाही दे रहे हैं। हालांकि अलग-अलग रीति से हो रहे अंतिम संस्कार के कारण ये आंकड़े भी पूरी तरह सही नहीं कहे जा सकते। आर्य समाज के रीति रिवाज से अंतिम संस्कार करने पर घड़े नहीं बांधे जाते हैं।

आत्मा की शांति के लिए बांधे जाते हैं घड़े
यहां हिंदू रीति-रिवाज के मुताबिक, किसी की मौत होने के बाद आत्मा की शांति के लिए पीपल के पेड़ पर एक घड़ा बांधा जाता है। इसमें 10 दिन तक रोज पानी दिया जाता है। पेड़ पर बंधे घड़े यह बताते हैं कि 10 दिनों के अंदर आसपास कितने लोगों की मौत हुई है। गोरखपुर में अब शायद ही ऐसा कोई मोहल्ला हो, जहां पीपल का कोई पेड़ खाली हो।

शिवपुर सहबाजगंज मोहल्ले में रहने वाले लोगों का कहना है कि इनमें से अधिकतर मौतें कोरोना से हुई हैं। हर दिन एक-दो नए घड़े बांधे जा रहे हैं। वहीं, पीपल पर जगह नए घड़ों को टांगने के लिए 10 दिन पूरा हो जाने वाले घड़ों को उतार दिया जा रहा है, ताकि नए घड़े लटकाए जा सकें। आलम यह है कि दो-चार घरों को छोड़ बाकी घरों में मौत का मातम छाया हुआ है।

पीपल पर घड़ा लटकाने की यह है मान्यता
पं. रविशंकर पांडेय बताते हैं कि हिंदू संस्कृति में मृत्यु के बाद पीपल पर घड़े बांधने की परंपरा है। गरुण पुराण के मुताबिक, पीपल को देवताओं का घर कहा जाता है। मृत्यु के बाद जीव देवताओं की शरण के लिए भागते हैं। इसलिए मृत्यु होने के बाद एक घड़े को घर के पास किसी पीपल के पेड़ पर टांग दिया जाता है। इस घड़े की पेंदी (निचले भाग) में छेद कर दिया जाता है, ताकि बूंद-बूंद पानी पीपल की जड़ में जाता रहे। मुखाग्नि देने वाला दस दिन तक हर सुबह पानी देता है। शाम को तिल के तेल का दीपक जलाते हैं। 11वें दिन महाब्राह्मण आते हैं, वे उस घड़े को फोड़ते हैं।

पीपल पर नहीं बची जगह
शहर के शिवपुर सहबाजगंज में पादरी बाजार पुलिस चौकी से पहले एक पीपल का पेड़ है। इस पेड़ पर इन दिनों घड़े टांगने की जगह ही नहीं बची है। पेड़ पर अभी 24 घड़े टंगे हुए हैं। मोहल्ले वाले बताते हैं कि मोहल्ले में हर दिन किसी न किसी के मौत की खबर सुनने को मिल रही है।

घड़ों से कैसे समझें मौतों का सच?
पं. रविशंकर पांडेय बताते हैं कि पीपल के पेड़ में घड़े सिर्फ उन्हीं मृतकों के लिए टांगे जाते हैं, जिनका अंतिम संस्कार सनातन रीति-रिवाज से हुआ हो। आज के वक्त में अधिकतर मौतों में परिवार के लोग मृतक का अंतिम संस्कार आर्य समाज रीति रिवाज से कर रहे हैं।

आर्य समाज में सब कुछ तीन दिनों में ही खत्म हो जाता हैं। आर्य समाज के मुताबिक इसमें न दस दिनों का कर्मकांड होता है और न ही पीपल पर घड़े टांगे जाते हैं , इसलिए अधिकतर लोग इसी रिवाज को अपनाते हैं। ऐसे में इन घड़ों से आसपास हुई मौतों का आंकड़ा और सच काफी आसानी से समझा जा सकता है।

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