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भारत की सांस्कृतिक विरासत व पारिवारिक तालमेल को पूर्व वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने 1991 के बाद पांचवें वेतन आयोग के साथ खेलना शुरू कर दिया था। मनमोहन सिंह ने लोगों की क्रय शक्ति बढ़ाने के लिए सरकारी कर्मचारियों की आय में वह बढ़ोतरी की जो सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न करने के लिए पर्याप्त था उन्होंने वेतन वृद्धि लगभग 10 गुना कर दी उनका उद्देश्य था कि लोगों के पास पैसा होगा तो मार्केट में खर्च होगा और इस तरीके से वह अन्य लोगों तक जाएगा लेकिन यहीं पर उन्होंने सरकारी कर्मचारियों को अंधाधुंध पैसा देकर उन्हें भारत की सामाजिक स्थिति से अलग खड़ा कर दिया और देश पर भार भी बढ़ा दिया। देश में आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति के रूप में सरकारी नौकरी पेशे के लोगों को जाना जाने लगा। जो बड़े व्यवसायी नहीं या सरकारी नहीं उन्हें मजबूरी की जिंदगी गुजारने वाला या मजबूर माना जाने लगा। उसी के बाद से इस महत्व को भी समझा जाने लगा कि सरकारी नौकरी वाला व्यक्ति ही जीवन यापन के लिए बेहतर होता है। इसे यूं समझ सकते हैं कि सरकारी दामाद की मांग बढ़ गई। देश के विभिन्न अंचलों में लोग सरकारी नौकरी को माई बाप और नौकरी करने वाले को सरकारी दामाद कहने लगे। इसी दरम्यान उन्होंने तमाम सरकारी विभागों में महिलाओं की बढ़ोत्तरी का अभियान चलाया। सैद्धांतिक रूप से देखा जाए तो यह बराबरी का अधिकार था किन्तु इसी के साथ भारत में बेरोजगारी का सिलसिला भी चालू हो गया क्योंकि नौकरियां सीमित थी। पुरुष वर्ग जब काम धंधा करता था तो महिला घर में रहकर घर को संभालती थी। वे पास पड़ोस में सामाजिक गतिविधियों में भी भाग लेकर अपने हुनर व प्रतिभा का लोहा मनवाया करती थी। सरकारी नौकरी में जाने के बाद पुरुषों के लिए उतनी ही नौकरियों की कमी हो गई, क्योंकि किसी भी सरकार ने महिलाओं को एडजस्ट करने के लिए अलग से व्यवस्था नहीं उपलब्ध करा सकी और ना ही विशेष व्यवस्था करते हुए रोजगार के अतिरिक्त अवसर उत्पन्न किए। जबकि भारत में जनसंख्या के अनुपात में तमाम विभागों में सरकारी कर्मचारियों की बहुत कमी थी/है। यहां यह बात ध्यान रखने योग्य है कि सरकारी कर्मचारी पुरुष वर्ग का होता है तो वह गैर सरकारी कर्मचारी या घरेलू महिला से शादी कर पारिवारिक जिम्मेदारियों का निर्वहन बेहतर कर लेता है। लेकिन सरकारी कर्मचारी के रूप में महिला वर्ग होती है तो वह सरकारी कर्मचारी से ही शादी करना पसंद करती है वह भी उससे जो उससे उच्च पदासीन हो। अक्सर ऐसा ना होने पर पारिवारिक संतुलन बिगड़ते देखा जा सकता है और यह भी देखा जा सकता है की महिला वर्ग पर ऑफिस में काम के बाद घरेलू काम की जिम्मेदारियां अलग से हो जाती हैं यानी ओवरटाइम ड्यूटी फ्री में, यदि पुरुष वर्ग सरकारी क्षेत्र में उच्च पदासीन नहीं है तो संबंधों को टूटते हुए भी देखा जा सकता है या संबंधों में खटपट आम बात है। दूसरे दृष्टिकोण से देखा जाए तो महिला व पुरुष दोनों के गवर्नमेंट जॉब में होने और तमाम वेतन आयोग की सुविधा के बाद वह परिवार आर्थिक रूप से सर्वाधिक संपन्न हो जाता है यानी जो हमारा सामाजिक ताना-बाना है उसमें तत्काल अंतर उत्पन्न हो जाता है। यह कहना कि ऐसी स्थिति के बाद भी घरेलू कामकाजी महिलाओं को जॉब मिला है उचित नहीं होगा क्योंकि घरेलू कामकाजी महिलाओं की वजह से बच्चों में पैतृक संस्कारों का अभाव तथा तमाम विवादों का जन्म भी हुआ है। मनमोहन सिंह जी यदि तनख्वाह को कई गुना बढ़ाने के स्थान पर प्रत्येक क्षेत्र में लोगों की संख्या को बढ़ा देते, तो आज बेरोजगारी सुरसा की तरह मुंह फैलाए खड़ी ना होती। आज क्राइम का जो ग्राफ बढ़ रहा है उसके पीछे भी बेरोजगारी है तमाम घरेलू हिंसा और घटनाओं के पीछे बेरोजगारी तथा आर्थिक असमानता ही है। यदि कर्मचारियों की संख्या बढ़ आया होता तो निश्चित ही भारत की आबादी के अनुरूप कामकाजी लोगों की संख्या बढ़ गई होती, कोर्ट में फाइलों का अंबार ना होता। पुलिस विभाग में 24 घंटे की ड्यूटी तथा काम का प्रेशर ना होता, तमाम ऑफिसों में दसियों साल तक फाइल मेज पर पड़ी धूल न फांकती। देश में आधी आबादी महिलाओं की है यानी महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए महिला डाक्टरों व कर्मचारियों को प्रोत्साहित करना था तमाम महिलाओं से संबंधित रेडीमेड कल कारखानों व कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना था जिससे पारिवारिक ताना-बाना भी बना रहता और महिलाएं भी इच्छा अनुसार काम को कर पाती। एक साथ महिला थानों का निर्माण करके महिलाओं को महिलाओं की समस्याओं के लिए लगाया जा सकता था। यदि आर्थिक स्थिति में यह विशेष अंतर मनमोहन सिंह ने ना किया होता तो निश्चित ही आज हमारा सामाजिक सौहार्द उससे बेहतर होता और ज्यादा लोग काम करते हुए ज्यादा लोग खुशहाल जीवन जीते हुए ज्यादा परिवारों को खुश रख सकते थे। उसके बाद भी तमाम सरकारें आई किन्तु सभी को यह नीति बेहद पसंद आई क्योंकि किसी ने भविष्य में भारत में बढ़ती हुई बेरोजगारी, घरों में कलह तथा इसके सापेक्ष क्राइम का आभास ही नहीं किया। जीवन के उस पड़ाव पर जब कुछ पैसे की सदैव आवश्यकता बनी रहती है तो सरकार ने बढ़ते बोझ को ध्यान में रखते हुए अटल जी के नेतृत्व में पेंशन जैसी व्यवस्था को भी बंद कर दिया। यह सब गलत अर्थ नीति की वजह से हुआ। वर्तमान में मोदी सरकार भी अनवरत इसे बढ़ाते हुए आगे बढ़ रही है यूं कहें कि मोदी जी इससे भी चार कदम आगे सभी क्षेत्रों का निजीकरण करते हुए निजी हाथों में सौंप रहे हैं यानी अपने मंत्रियों को भी मुफ्त की तनख्वाह देने का जुगाड़ कर रहे हैं और ऐसा जुगाड़ कर रहे हैं कि किसी भी स्थिति परिस्थिति में कोई व्यक्ति यह न कह सके कि फला विभाग की लापरवाही से मेरा यह नुकसान हुआ और उसके लिए दोषी सरकार है। भारत में बढ़ती बेरोजगारी, आर्थिक स्थिति में असमानता, गृह क्लेश, व कलह, विभिन्न प्रदेशों में क्राइम का बढ़ता ग्राफ उपरोक्त की देन है जो भारत की वैदिक व्यवस्था व संस्कारों के ठीक विपरीत है। यह ऐसी व्यवस्था है जो भारतीय सामाजिक ताने-बाने को ध्वस्त कर दे रही है।

अरविंद विश्वकर्मा

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